Wednesday, September 3, 2008

सच है, फिल्मों से फैली है हिंदी : अशोक चक्रधर






मुंबई. हिंदी के जाने माने साहित्यकार और कवि सम्मेलनों के सफल मंच संचालक अशोक चक्रधर का मानना है कि दुनिया भर में हिंदी का विस्तार करने के लिए तथाकथित और दकियानूसी साहित्यकारों के बजाय हिंदी फिल्में ज्यादा कारगर रही हैं। यही नहीं फिल्में विदेशों में हिंदी सीखने और सिखाने का जरिया भी बनी हैं। इस सच को कबूल किया जा रहा है और किया जाना चाहिए। जुलाई में न्यूयॉर्क में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत करने वाले चक्रधर ने सम्मेलन और हिंदी के बारे में भास्कर डॉट कॉम से बातचीत की।
विश्व हिंदी सम्मेलन 2007 की क्या उपलब्धि रही?पूरी दुनिया में लोग कैसे हिंदी बोलते और समझते हैं, इसके साथ ही यह भी उभरकर सामने आया कि दुनिया भर में हिंदी के सामने क्या समस्याएं हैं। देखा जाए तो उपलब्धि यह रही कि पहली बार संयुक्त राष्ट्र के प्रांगण में पहली बार हिंदी गूंजी। और गर्व की बात यह है कि महासचिव ने भी आंशिक रूप से हिंदी में भाषण दिया। तो कहा जा सकता है कि हिंदी की पताका दुनिया के सामने और ऊंची हो गई।
अन्य महत्वपूर्ण बातें भी सामने आईं मसलन : हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए कोशिशें तेज हुईं, हिंदी वालों की हीन भावना काफी हद तक कम होती दिखी, पहली बार इस सच को माना गया कि हिंदी फिल्मों ने हिंदी के प्रसार मंे उल्लेखनीय काम किया है, यह भी आंख खुली कि हिंदी सीखने और सिखाने के तरीके विदेशों में अनूठे हैं और अनुकरणीय भी और सूचना प्रौद्योगिकी में भी हिंदी पैठ बना पाई है, यह भी रेखांकित किया जा सका।
भारत की राष्ट्रभाषा घोषित न हो सकी हिंदी को यूएन में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का क्या आधार है?अगर दुनिया मानती है कि भारत एक महाशक्ति है तो उसे देश की एक भाष को मंजूर करना होगा। और फिर, भारत की राजभाषा तो हिंदी है ही। संपर्क भाषा के रूप में भी पूरे भारत में हिंदी के सामने कोई चुनौती नहीं है। अब तो दक्षिण भारत का रवैया भी बदला है और हिंदी को सहृदयता के साथ अपनाया जाने लगा है। और मेरा मानना है कि राष्ट्रभाषा हिंदी नहीं है, ऐसी शंका नहीं रखना चाहिए। घोषित किए जाने से ही राष्ट्रभाषा नहीं होती।
हिंदी इस मकाम तक कैसे आई?टीवी, फिल्में और मीडिया ने हिंदी को जन-जन तक पहुंचा दिया है। दूसरी बात यह है कि देश ने विकास किया तो हिंदी का विकास भी खुद हो गया। पहले हिंदी अंग्रेजी की दासी तक कही जा चुकी थी लेकिन अब अंग्रेजी खुद हिंदी की पालकी उठाकर चल रही है। अब वह युग लद गया जब हिंदी को नाक-भौं सिकोड़कर देखा जाता था। अब तो हिंदी में सॉफ्टवेयर बन रहे हैं और इंटरनेट पर ब्लॉग के माध्यम से दिनोंदिन हिंदी तेजी से बढ़ रही है।
हिंदी में विज्ञापन, टीवी शो और फिल्मों से लेकर हरेक प्रोडक्ट बिकता है लेकिन किताबें नहीं, क्यों?मुझे लगता है कि हिंदी बोलने और सुनने की भाषा के रूप में विकसित हुई और हो रही है। लिखने-पढ़ने की भाषा में हिंदी का समुचित विकास नहीं हो सका। महान या लोकप्रिय साहित्य अब भी बिक जाता है लेकिन ऐसा नहीं है कि इन दिनों अच्छा लेखन नहीं हो रहा। असल में कोई भी साहित्य कालांतर में ही महान हो पाता है। हिंदी की किताबों की बिक्री के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
मेरा मानना है कि अगर बॉलीवुड मुन्नाभाई की तर्ज पर हिंदी को केंद्रित कर एक सुंदर सी फिल्म बना दे तो हिंदी की कई समस्याएं दूर हो जाएंगी और हिंदी गांधीवाद की तरह ही जीवंत हो उठेगी।
आने वाले समय में हिंदी को किस मकाम पर देखते हैं आप?परिस्थितियां सकारात्मक हैं। वैसे भी मैं कहता रहता हूं कि भले ही अंग्रेजी में सर्व करो लेकिन हिंदी पर गर्व करो। मेरा मानना है कि कोई भी भाषा घृणा की पात्र नहीं है जब तक वह किसी भाषा या समाज के हित पर चोट न करे। अब अंग्रेजी वह भाषा नहीं रही। मिलजुलकर आगे बढ़ें तो हिंदी का भविष्य यकीनन बहुत बेहतर है।
(प्रस्तुति:भावेश दिलशाद)

1 comment:

अविनाश वाचस्पति said...

अशोक जी की हथेली में
आधुनिक सुदर्शन चक्र
दिखलाई दे रहा है
चक्रधर जो हैं वे
.